1.7.89

चौपाई
मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला।।
राम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ।।
तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया।।
यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा।।
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा।।
राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई।।
जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती।।
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई।।


दोहा/सोरठा
बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु। 
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु।।89(क)।।
कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु। 
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ।।89(ख)।।

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