ayodhyakaanda

1.2.235

चौपाई
सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने।।
भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू।।
ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी।।
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी।।
राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा।।
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू।।
भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी।।
सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ।।

दोहा/सोरठा

1.2.234

चौपाई
जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौ सनमानहिं सेवकु मानी।।
मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही।।
जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम निज निपुन नबीना।।
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता।।
फेरत मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी।।
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ।।
भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी।।
देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू।।

दोहा/सोरठा

1.2.233

चौपाई
जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को।।
कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा।।
लखन राम सियँ सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी।।
इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए।।
सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा।।
चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई।।
समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं।।
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ।।

दोहा/सोरठा

1.2.232

चौपाई
तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई।।
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी।।
मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई।।
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना।।
सगुन खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता।।
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा।।
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी।।
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ।।

दोहा/सोरठा

1.2.231

चौपाई
जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी।।
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा।।
अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ।।
सहसा करि पाछैं पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं।।
सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने।।
कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई।।
जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई।।
सुनहु लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा।।

दोहा/सोरठा

1.2.230

चौपाई
उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा।।
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा।।
आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ।।
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई।।
आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू।।
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू।।
तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता।।
जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई।।

दोहा/सोरठा

1.2.229

चौपाई
सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू।।
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काऊ।।
एक कीन्हि नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई।।
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी।।
एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला।।
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी।।
अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा।।
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें।।

दोहा/सोरठा

1.2.228

चौपाई
बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई।।
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेम सकल जगु जाना।।
तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई।।
कुटिल कुबंध कुअवसरु ताकी। जानि राम बनवास एकाकी।।
करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू।।
कोटि प्रकार कलपि कुटलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई।।
जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली।।
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ।।

दोहा/सोरठा

1.2.227

चौपाई
बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू।।
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी।।
सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू।।
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाही।।
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने।।
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू।।
बिनु पूँछ कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाई।।
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी।।

दोहा/सोरठा

1.2.225

चौपाई
मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू।।
भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटहि दुख दाहू।।
करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके।।
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन पेम बस बोलहिं।।
रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा।।
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा।।
देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा।।
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू।।

दोहा/सोरठा

Pages

Subscribe to RSS - ayodhyakaanda