चौपाई
 हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं।। 
 तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला।।
 त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया।। 
 एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ।।
 निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला।। 
 कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा।।
 तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना।। 
 भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी।।
दोहा/सोरठा
जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल। 
 नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल।।106।।
