चौपाई
 कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी।। 
 एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ।।
 माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा।। 
 गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई।।
 निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा।। 
 मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें।।
 मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना।। 
 सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा।।
दोहा/सोरठा
रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ। 
 बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ।।133।।
