चौपाई
 जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली।। 
 पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं।।
 धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला।। 
 दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा।।
 मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी।। 
 तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई।।
 अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी।। 
 बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा।।
दोहा/सोरठा
होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ। 
 हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ।।135।।
