चौपाई
 अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता।। 
 काल सुभाउ करम बरिआई। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई।।
 सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं।। 
 खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू।।
 लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ।। 
 उधरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू।।
 किएहुँ कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू।। 
 हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू।।
 गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा।। 
 साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी।।
 धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई।। 
 सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता।।
दोहा/सोरठा
ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग। 
 होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग।।7(क)।।
 सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह। 
 ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह।।7(ख)।।
 जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। 
 बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि।।7(ग)।।
 देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब। 
 बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब।।7(घ)।।
