चौपाई
 खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा।। 
 हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही।।
 कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू।। 
 भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी।।
 प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी।। 
 हरि हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुवर की।।
 राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी।। 
 कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू।।
 आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना।। 
 भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा।।
 कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।।
दोहा/सोरठा
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक। 
 सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक।।9।।
