चौपाई
 मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी।। 
 नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई।।
 तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं।। 
 भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई।।
 राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ।। 
 कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी।।
 कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना।। 
 हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना।।
 जौं बरषइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू।।
दोहा/सोरठा
जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग। 
 पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।11।।
