चौपाई
 गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकुला।। 
 तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू।।
 दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी।। 
 नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई।।
 जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई।। 
 तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई।।
 सहज सनेह राम लखि तासु। संग लीन्ह गुह हृदय हुलासू।। 
 पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे।।
दोहा/सोरठा
 तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ। 
 सखा अनुज सिया सहित बन गवनु कीन्ह रधुनाथ।।104।।
