चौपाई
 मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना।। 
 मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक।।
 प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा।। 
 हे बिधि दीनबंधु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया।।
 सहित अनुज मोहि राम गोसाई। मिलिहहिं निज सेवक की नाई।। 
 मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं।।
 नहिं सतसंग जोग जप जागा। नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा।। 
 एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की।।
 होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पंकज भव मोचन।। 
 निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी।।
 दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा।। 
 कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई।।
 अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई।। 
 अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा।।
 मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा।। 
 तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए।।
 मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यानजनित सुख पावा।। 
 भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा।।
 मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें। बिकल हीन मनि फनि बर जैसें।। 
 आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा।।
 परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी।। 
 भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई।।
 मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहि जनु भेंट तमाला।। 
 राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा।।
दोहा/सोरठा
तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार। 
 निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार।।10।।
