चौपाई
 पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी।। 
 मत्त नाग तम कुंभ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी।।
 बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निसि सुंदरी केर सिंगारा।। 
 कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई।।
 कह सुग़ीव सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई।। 
 मारेउ राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई।।
 कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा।। 
 छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं। तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं।।
 प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा।। 
 बिष संजुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवंत नर नारी।।
दोहा/सोरठा
कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हारा प्रिय दास। 
 तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास।।12(क)।।
 पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान। 
 दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान।।12(ख)।।
