चौपाई
 कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही।। 
 रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई।।
 पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा। जाके दूत केर यह कामा।। 
 कौतुक सिंधु नाघी तव लंका। आयउ कपि केहरी असंका।।
 रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा।। 
 जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा।।
 अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु।। 
 पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुल बल जानहु।।
 बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा।। 
 जनक सभाँ अगनित भूपाला। रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला।।
 भंजि धनुष जानकी बिआही। तब संग्राम जितेहु किन ताही।। 
 सुरपति सुत जानइ बल थोरा। राखा जिअत आँखि गहि फोरा।।
 सूपनखा कै गति तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिषेषी।।
दोहा/सोरठा
बधि बिराध खर दूषनहि लींलाँ हत्यो कबंध। 
 बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकंध।।36।।
