चौपाई
 आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा।। 
 तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला।।
 लागि सक्ति मुरुछा कछु भई। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई।। 
 देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो।।
 रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे।। 
 सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाए। एक एक के कोटिन्ह पाए।।
 तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो।। 
 राम बिमुख सठ चहसि संपदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा।।
छंद
उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर् यो।  
    दस बदन सोनित स्त्रवत पुनि संभारि धायो रिस भर् यो।।
  द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै।  
    रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै।।
दोहा/सोरठा
उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ।  
    सो अब भिरत काल ज्यों श्रीरघुबीर प्रभाउ।।94।।
