verse

1.6.112

चौपाई
तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए।।
अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा।।
तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ। जीत्यों अजय निसाचर राऊ।।
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी। नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ी।।
रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना।।
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो।।
सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं।।
बार बार करि प्रभुहि प्रनामा। दसरथ हरषि गए सुरधामा।।

1.6.111

छंद
जय राम सदा सुखधाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे।।
भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो।।
तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी।।
जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा।।
जन रंजन भंजन सोक भयं। गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयं।।
अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभंजन ग्यानघनं।।
अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा।।
रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा।।
गुन ग्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजं।।

1.6.110

चौपाई
तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई।।
आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी।।
दीन बंधु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया।।
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयउ कुमारगगामी।।
तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी।।
अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय।।
मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी।।
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो।।
यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही।।
अधम सिरोमनि तव पद पावा। यह हमरे मन बिसमय आवा।।

1.6.109

चौपाई
प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता।।
लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी।।
सुनि लछिमन सीता कै बानी। बिरह बिबेक धरम निति सानी।।
लोचन सजल जोरि कर दोऊ। प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ।।
देखि राम रुख लछिमन धाए। पावक प्रगटि काठ बहु लाए।।
पावक प्रबल देखि बैदेही। हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही।।
जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीं।।
तौ कृसानु सब कै गति जाना। मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना।।

1.6.108

चौपाई
अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता।।
तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई।।
सुनि संदेसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन।।
मारुतसुत के संग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु।।
तुरतहिं सकल गए जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता।।
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो।।
बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए।।
ता पर हरषि चढ़ी बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही।।
बेतपानि रच्छक चहुँ पासा। चले सकल मन परम हुलासा।।

1.6.107

चौपाई
पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लंका जाहु कहेउ भगवाना।।
समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु।।
तब हनुमंत नगर महुँ आए। सुनि निसिचरी निसाचर धाए।।
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही।।
दूरहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा।।
कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता।।
सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा।।
अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो।।

1.6.106

चौपाई
आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिंधु तब अनुज बोलायो।।
तुम्ह कपीस अंगद नल नीला। जामवंत मारुति नयसीला।।
सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा।।
पिता बचन मैं नगर न आवउँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ।।
तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना। कीन्ही जाइ तिलक की रचना।।
सादर सिंहासन बैठारी। तिलक सारि अस्तुति अनुसारी।।
जोरि पानि सबहीं सिर नाए। सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए।।
तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे। कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे।।

1.6.105

चौपाई
मंदोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना।।
अज महेस नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी।।
भरि लोचन रघुपतिहि निहारी। प्रेम मगन सब भए सुखारी।।
रुदन करत देखीं सब नारी। गयउ बिभीषनु मन दुख भारी।।
बंधु दसा बिलोकि दुख कीन्हा। तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा।।
लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो। बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो।।
कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका।।
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी। बिधिवत देस काल जियँ जानी।।

1.6.104

चौपाई
पति सिर देखत मंदोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी।।
जुबति बृंद रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आई।।
पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा।।
उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना।।
तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी।।
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा।।
बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा।।
भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईं।।
जगत बिदित तुम्हारी प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई।।

1.6.103

चौपाई
सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा।।
लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा।।
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा।।
गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी।।
डोली भूमि गिरत दसकंधर। छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर।।
धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई। चापि भालु मर्कट समुदाई।।
मंदोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा।।
प्रबिसे सब निषंग महु जाई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई।।
तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि संभु चतुरानन।।

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