7

2.3.7

चौपाई
মুনি পদ কমল নাই করি সীসা৷ চলে বনহি সুর নর মুনি ঈসা৷৷
আগে রাম অনুজ পুনি পাছেং৷ মুনি বর বেষ বনে অতি কাছেং৷৷
উময বীচ শ্রী সোহই কৈসী৷ ব্রহ্ম জীব বিচ মাযা জৈসী৷৷
সরিতা বন গিরি অবঘট ঘাটা৷ পতি পহিচানী দেহিং বর বাটা৷৷
জহজহজাহি দেব রঘুরাযা৷ করহিং মেধ তহতহনভ ছাযা৷৷
মিলা অসুর বিরাধ মগ জাতা৷ আবতহীং রঘুবীর নিপাতা৷৷
তুরতহিং রুচির রূপ তেহিং পাবা৷ দেখি দুখী নিজ ধাম পঠাবা৷৷
পুনি আএ জহমুনি সরভংগা৷ সুংদর অনুজ জানকী সংগা৷৷

2.2.7

चौपाई
জো মুনীস জেহি আযসু দীন্হা৷ সো তেহিং কাজু প্রথম জনু কীন্হা৷৷
বিপ্র সাধু সুর পূজত রাজা৷ করত রাম হিত মংগল কাজা৷৷
সুনত রাম অভিষেক সুহাবা৷ বাজ গহাগহ অবধ বধাবা৷৷
রাম সীয তন সগুন জনাএ৷ ফরকহিং মংগল অংগ সুহাএ৷৷
পুলকি সপ্রেম পরসপর কহহীং৷ ভরত আগমনু সূচক অহহীং৷৷
ভএ বহুত দিন অতি অবসেরী৷ সগুন প্রতীতি ভেংট প্রিয কেরী৷৷
ভরত সরিস প্রিয কো জগ মাহীং৷ ইহই সগুন ফলু দূসর নাহীং৷৷
রামহি বংধু সোচ দিন রাতী৷ অংডন্হি কমঠ হ্রদউ জেহি ভাী৷৷

2.1.7

चौपाई
অস বিবেক জব দেই বিধাতা৷ তব তজি দোষ গুনহিং মনু রাতা৷৷
কাল সুভাউ করম বরিআঈ৷ ভলেউ প্রকৃতি বস চুকই ভলাঈ৷৷
সো সুধারি হরিজন জিমি লেহীং৷ দলি দুখ দোষ বিমল জসু দেহীং৷৷
খলউ করহিং ভল পাই সুসংগূ৷ মিটই ন মলিন সুভাউ অভংগূ৷৷
লখি সুবেষ জগ বংচক জেঊ৷ বেষ প্রতাপ পূজিঅহিং তেঊ৷৷
উধরহিং অংত ন হোই নিবাহূ৷ কালনেমি জিমি রাবন রাহূ৷৷
কিএহুকুবেষ সাধু সনমানূ৷ জিমি জগ জামবংত হনুমানূ৷৷
হানি কুসংগ সুসংগতি লাহূ৷ লোকহুবেদ বিদিত সব কাহূ৷৷
গগন চঢ়ই রজ পবন প্রসংগা৷ কীচহিং মিলই নীচ জল সংগা৷৷

1.7.7

चौपाई
सासुन्ह सबनि मिली बैदेही। चरनन्हि लागि हरषु अति तेही।।
देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता।।
सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मंगल जानि नयन जल रोकहिं।।
कनक थार आरति उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं।।
नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानंद हरष उर भरहीं।।
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिंधु रनधीरहि।।
हृदयँ बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लंकापति मारा।।
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे।।

1.6.7

चौपाई
नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई।।
चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते।।
संत कहहिं असि नीति दसानन। चौथेंपन जाइहि नृप कानन।।
तासु भजन कीजिअ तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता।।
सोइ रघुवीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी।।
मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होहिं बिरागी।।
सोइ कोसलधीस रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया।।
जौं पिय मानहु मोर सिखावन। सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन।।

दोहा/सोरठा

1.5.7

चौपाई
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।
जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।।
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।

1.4.7

चौपाई
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी।।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना।।
जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई।।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा।।
देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।।
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।।
आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई।।
जा कर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।।
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी।।

1.3.7

चौपाई
मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा।।
आगे राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें।।
उमय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी।।
सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानी देहिं बर बाटा।।
जहँ जहँ जाहि देव रघुराया। करहिं मेध तहँ तहँ नभ छाया।।
मिला असुर बिराध मग जाता। आवतहीं रघुवीर निपाता।।
तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा। देखि दुखी निज धाम पठावा।।
पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा।।

दोहा/सोरठा

1.2.7

चौपाई
जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा।।
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा।।
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा।।
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए।।
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं।।
भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी।।
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं।।
रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती।।

दोहा/सोरठा

1.1.7

चौपाई
अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता।।
काल सुभाउ करम बरिआई। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई।।
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं।।
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू।।
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ।।
उधरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू।।
किएहुँ कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू।।
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू।।
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा।।

Pages

Subscribe to RSS - 7