चौपाई
 अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी।। 
 लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी।।
 कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी।। 
 मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना।।
 जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका।। 
 हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं।।
 बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे।। 
 जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं काना।।
दोहा/सोरठा
अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद। 
 सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम।।115।।
