1.1.312

चौपाई
एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं।।
जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए।।
कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला।।
गए बीति कुछ दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती।।
मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा।।
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू।।
पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई।।
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता।।

दोहा/सोरठा
धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल।।312।।

Kaanda: 

Type: 

Language: 

Verse Number: