1.1.323

चौपाई
सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई।।
आवत दीखि बरातिन्ह सीता।।रूप रासि सब भाँति पुनीता।।
सबहि मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा।।
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता।।
सुर प्रनामु करि बरसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला।।
गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी।।
एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई।।
तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू।।

छंद
आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।
सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं।।
मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं।
भरे कनक कोपर कलस सो सब लिएहिं परिचारक रहैं।।1।।
कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो।
एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो।।
सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु न लखि परै।।
मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै।।2।।

दोहा/सोरठा
होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।
बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं।।323।।

Kaanda: 

Type: 

Language: 

Verse Number: