1.2.115

चौपाई
एक कलस भरि आनहिं पानी। अँचइअ नाथ कहहिं मृदु बानी।।
सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी। राम कृपाल सुसील बिसेषी।।
जानी श्रमित सीय मन माहीं। घरिक बिलंबु कीन्ह बट छाहीं।।
मुदित नारि नर देखहिं सोभा। रूप अनूप नयन मनु लोभा।।
एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा। रामचंद्र मुख चंद चकोरा।।
तरुन तमाल बरन तनु सोहा। देखत कोटि मदन मनु मोहा।।
दामिनि बरन लखन सुठि नीके। नख सिख सुभग भावते जी के।।
मुनिपट कटिन्ह कसें तूनीरा। सोहहिं कर कमलिनि धनु तीरा।।

दोहा/सोरठा
जटा मुकुट सीसनि सुभग उर भुज नयन बिसाल।
सरद परब बिधु बदन बर लसत स्वेद कन जाल।।115।।

Kaanda: 

Type: 

Language: 

Verse Number: