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चौपाई
अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पंकज सिरु नावा।।
तब लंकेस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सन्मुख धावा।।
जीतेहु जे भट संजुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं।।
रावन नाम जगत जस जाना। लोकप जाकें बंदीखाना।।
खर दूषन बिराध तुम्ह मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा।।
निसिचर निकर सुभट संघारेहु। कुंभकरन घननादहि मारेहु।।
आजु बयरु सबु लेउँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाहीं।।
आजु करउँ खलु काल हवाले। परेहु कठिन रावन के पाले।।
सुनि दुर्बचन कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना।।
सत्य सत्य सब तव प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई।।

छंद
जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा।
संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा।।
एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं।।

दोहा/सोरठा
राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान।
बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान।।90।।

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